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देवता: इन्द्रः ऋषि: नृमेध आङ्गिरसः छन्द: पुर उष्णिक् स्वर: ऋषभः काण्ड:

यु꣣ञ्ज꣢न्ति꣣ ह꣡री꣢ इषि꣣र꣢स्य꣣ गा꣡थ꣢यो꣣रौ꣡ रथ꣢꣯ उ꣣रु꣡यु꣢गे वचो꣣यु꣡जा꣢ । इ꣣न्द्रवा꣡हा꣢ स्व꣣र्वि꣡दा꣢ ॥७१२॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

युञ्जन्ति हरी इषिरस्य गाथयोरौ रथ उरुयुगे वचोयुजा । इन्द्रवाहा स्वर्विदा ॥७१२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

युञ्ज꣡न्ति꣢ । हरी꣢꣯इ꣡ति꣢ । इषिर꣡स्य꣢ । गा꣡थ꣢꣯या । उ꣣रौ꣢ । र꣡थे꣢꣯ । उ꣣रु꣡यु꣢गे । उ꣣रु꣢ । यु꣣गे । वचोयु꣡जा꣢ । व꣣चः । यु꣡जा꣢꣯ । इ꣣न्द्रवा꣡हा꣢ । इ꣣न्द्र । वा꣡हा꣢꣯ । स्व꣣र्वि꣡दा꣢ । स्वः꣣ । वि꣡दा꣢꣯ ॥७१२॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 712 | (कौथोम) 1 » 1 » 23 » 3 | (रानायाणीय) 1 » 6 » 4 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में उपासक क्या करते हैं, यह कहा गया है।

पदार्थान्वयभाषाः -

उपासक लोग (इषिरस्य) सर्वान्तर्यामी परमेश्वर के (गाथया) कीर्तिगान के साथ (उरुयुगे) जिसमें पृष्ठवंशरूप विस्तीर्ण धुरा लगा है ऐसे, (उरौ) विशाल (रथे) देहरूप रथ में (वचोयुजा) कहते ही कार्यसंलग्न हो जानेवाले, (इन्द्रवाहा) आत्मा से प्रेरित होनेवाले, (स्वर्विदा) ज्ञान तथा कर्म को प्राप्त करानेवाले (हरी) ज्ञानेन्द्रिय-कर्मेन्द्रिय-रूप घोड़ों को (युञ्जन्ति) कार्यतत्पर कर देते हैं ॥३॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वर की उपासना के साथ जीवन में ज्ञान का संचय तथा पुरुषार्थ भी करना चाहिये ॥३॥ इस खण्ड में आत्मोद्बोधन, जीवात्मा, परमात्मा, गुरु-शिष्य आदि का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ प्रथम अध्याय में षष्ठ खण्ड समाप्त ॥ प्रथम अध्याय समाप्त ॥ प्रथम प्रपाठक में प्रथम अर्ध समाप्त ॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथोपासकाः किं कुर्वन्तीत्याह।

पदार्थान्वयभाषाः -

उपासका जनाः किल (इषिरस्य) सर्वान्तर्यामिनः परमेश्वरस्य (गाथया) यशोगीतिकया सह (उरुयुगे) पृष्ठवंशरूपविस्तीर्णधुरायुक्ते (उरौ) विशाले (रथे) देहरथे (वचोयुजा) वचनसमकालमेव युज्यमानौ (इन्द्रवाहा) इन्द्रेण जीवात्मना उह्यमानौ प्रेर्यमाणौ (स्वर्विदा) ज्ञानकर्मप्रापकौ (हरी) ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियरूपौ अश्वौ (युञ्जन्ति) योजयन्ति ॥३॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वरोपासनया सह जीवने ज्ञानसंचयः पुरुषार्थश्चापि कार्यः ॥३॥ अस्मिन् खण्डे आत्मोद्बोधनजीवात्मपरमात्मगुरु- शिष्यादिवर्णनादे—तत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन सह संगतिर्वेद्या।

टिप्पणी: १. ऋ० ८।९८।९, अथ० २०।१००।३, उभयत्र ‘उ॒रुयुगे॑। इ॒न्द्र॒वाहा॑ वचो॒युजा॑।’ इति पाठः।